सरकारें योजना बनाती हैं किंतु नौकरशाही योजनाओं को पलीता लगाने का काम कर रही हैं
नरेश कुमार चौबे, पत्रकार, देहरादून। उत्तराखण्ड के गांवों से युवाओं का पलायन उत्तराखण्ड के निर्माण के बाद भी थमा नहीं है। तकरीबन 21 वर्ष में 10 मुख्यमंत्री बदल गये। सरकारें आयीी, गई, लेकिन पलायन के आंकड़ों में कोई सुधार नहीं हुआ। कहने को तो उत्तराखण्ड में उत्तराखंड ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग बना हुआ है। किंतु इसकी रिपोर्ट की एक बानगी देखिये, क्या कहती है ये रिपोर्ट:-
उत्तराखण्ड में ग्रामीण क्षेत्रों से हो रहा पलायन एक गंभीर समस्या है ? 2001 तथा 2011 की जनगणना के आकड़ों की तुलना में राज्य के पर्वतीय ज़िलों मे जनसंख्या वृधि बहुत धीमी गति से देखी जा रही है ? 2001 और 2011 के बीच अल्मोड़ा तथा पौड़ी गढ़वाल जनपदों की आबादी मे गिरावट राज्य के कई पहाड़ी क्षेत्रों से लोगों के बड़े पैमाने पर पलायन की और इशारा करती है ? पलायन की गति ऐसी है की कई ग्रामों की आबादी दो अंको में रह गयी है ? आकड़े दर्शाते हैं की देहरादून, उधमसिंह नगर, नैनीताल और हरिद्वार जैसे जनपदों मे जनसंख्या वृधि दर बढ़ी है, जबकि पौडी तथा आलमोड़ा जनपदों मे यह दर नकारात्मक है ? टिहरी , बागेश्वर, चमोली, रुद्रप्रयाग तथा पिथौरागढ़ जनपदों में असामान्य रूप से जनसंख्या वृधि दर काफ़ी कम है ?
उत्तराखण्ड सरकार ने समस्या के सभी पहलुओं की जांच करने के लिए अगस्त 2017 में ग्रामीण विकास और पलायन आयोग का गठन किया है, जो राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों के केंद्रित विकास के लिए एक दृष्टिकोण विकसित करेगा , ज़मीनी स्तर पर बहु-क्षेत्रीय विकास पर सरकार को सलाह देगा, जिला और राज्य स्तरों पर सरकार को विभिन्न अन्य संबंधित मामलों को भी प्रस्तुत करेगा।
उत्तराखंड के ग्रामीण विकास और पलायन निवारण आयोग ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि पिछले पांच वर्षों में उत्तराखंड के गांवों से स्थायी पलायन की दर में उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई है । राज्य सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में आयोग ने कहा है कि 2008 से 2018 तक की दस वर्षों की अवधि में 1,18,981 लोगों ने अपने गांवों से स्थायी रूप से पलायन किया था जबकि जनवरी 2018 से सितंबर 2022 के बीच स्थायी पलायन करने वालों की संख्या घटकर 28,531 रह गई।
आयोग के उपाध्यक्ष एस. एस. नेगी ने स्थायी पलायन में दर्ज की गयी इस गिरावट का श्रेय राज्य के बाहर जाकर जीवन यापन करने की बजाय घर पर उपलब्ध स्व-रोजगार के साधनों का लाभ उठाने के प्रति स्थानीय लोगों के बढ़ते रुझान को दिया। नेगी ने कहा पारंपरिक कृषि परिदृश्य अभी भी पांच साल पहले जितना ही निराशाजनक है। लेकिन लोग अपना घर छोड़ने की बजाय मत्स्य पालन, मुर्गीपालन और डेयरी फार्मिंग क्षेत्रों में उपलब्ध अवसरों से जीवनयापन करना ज्यादा पसंद कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना जैसी योजनाओं ने भी उन्हें घर पर स्वरोजगार के सर्वश्रेष्ठ मौकों का लाभ उठाने के लिए प्रोत्साहित किया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अल्मोड़ा, टिहरी और पौड़ी स्थायी पलायन का दंश झेलने वाले सर्वाधिक प्रभावित जिलों में शामिल हैं। पिछले पांच वर्ष में अल्मोड़ा से 5926, टिहरी से 5653 और पौड़ी से 5474 लोगों ने स्थायी रूप से पलायन किया है।
नैनीताल से 2014, चमोली से 1722, पिथौरागढ़ से 1713, चंपावत से 1588, बागेश्वर से 1403, हरिद्वार से 1029, उत्तरकाशी से 900, रुद्रप्रयाग से 715, देहरादून से 312 और उधम सिंह नगर से 82 लोग स्थायी रूप से पलायन कर चुके हैं। रिपोर्ट के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में 24 और गांव पूरी तरह से निर्जन हो गए हैं और इसके साथ ही वीरान मकानों और बंजर भूमि वाले गांवों की संख्या 1792 तक पहुंच गयी है।
आयोग के उपाध्यक्ष ने कहा वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में 1034 निर्जन गांव थे। 2018 तक 734 और गांव इस सूची में जुड़े जबकि 2022 में 24 का और इजाफा हो गया जिससे निर्जन गांवों की कुल संख्या बढ़कर 1792 तक पहुंच गयी। हालांकि, लोगों का अस्थायी पलायन अभी जारी है, जहां आजीविका की तलाश में लोग अपने गांवों से बाहर चले जाते हैं लेकिन बीच-बीच में घर लौटते रहते हैं।
वर्ष 2008 से 2018 के बीच उत्तराखंड की 6338 ग्राम पंचायतों से कुल 3,83,726 लोगों ने अस्थायी रूप से पलायन किया और पिछले पांच वर्षों में (जनवरी 2018 से सितंबर 2022 के बीच) ऐसे लोगों की संख्या 3,07,310 रही। नेगी ने कहा कि यदि अस्थायी पलायन इसी दर से जारी रहता है तो अगले पांच वर्षों में यह छह लाख के आंकड़े को पार कर सकता है और 2008 और 2018 की अवधि में दर्ज किए गए 3,83,726 के आंकड़े से लगभग दोगुना हो सकता है।
हालांकि उन्होंने कहा कि अस्थायी पलायन का भी एक सकारात्मक पहलू है क्योंकि यह राज्य से बाहर नहीं बल्कि इसकी सीमा के भीतर ही हुआ है।
रिपोर्ट के अनुसार पलायन अस्थाई हैं किंतु आयोग के अधिकारियों की रिपोर्ट प्रथम दृष्टया ही बन्द कमरों में बैठकर बनाई लगती है। वास्तविकता कुछ और ही है, उत्तराखण्ड के गांव के गांव बंजर हो रहे हैं। खेती नष्ट होती जा रही है। जंगली जानवरों के कारण खेती करना दुर्लभ होता जा रहा है। विषम परिस्थितियों में खेती के जानी जाने वाली महिलाएं आज खेती को अभिशाप मानने लगी हैं।
सरकारो ने प्रयास किये किंतु सारे प्रयास नौकरशाही की भेंट चढ़ते दिखाई दे रहे हैं। ग्रामवासियों के लिए रोजगार की तलाश में भटकने के अलावा और कोई चारा नहीं है। ग्राम योजनाओं से संबंधित किसी भी विभाग में चले जाओ, आपकी फाईल बिना वजन के आगे नहीं बढ़ती है। ऐसा नहीं है कि स्थानीय निवासियों ने पलायन रोकने के लिए काम न किया हों, किंतु वो केवल और केवल र्प्याय बन कर रह गये।
उत्तराखण्ड की पलायन की समस्या सिकुड़ते गांव और बंजर धरती आज भी आवाज दे रही है कि मेरी पुकार तो सुनो। ऐसा कौन सा उत्तराखण्ड का वीर है जो समय रहते मेरी दिशा और दशा सुधारेगा या फिर गांव के गांव उत्तराखण्ड के रहवासियों के बिना सूने हो जायेंगे।