2020 का कोरोना कॉल सभी को याद रखना चाहिए, जहां महानगरों में आक्सीजन के लिए मारा-मारी हो रही थी, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों और पर्वतीय क्षेत्रों में कोरोना चाह कर भी महानगरों की अपेक्षा अपने पैर ढंग से नहीं पसार पाया था। शायद इसकी वजह यही थी कि हम एक स्वस्थ वातावरण में जी रहे थे, जहां प्रकृति हमारी रक्षा कर रही थी।
वरिष्ठ संवाददाता, लम्बा सफर, देहरादून/उत्तराखण्ड। पर्वतीय क्षेत्रों के जंगलों में प्रतिवर्ष ग्रीष्मकालीन मौसम में प्रचण्ड भीषण आग लगती है। जिसमें पेड़-पौधों के अलावा तमाम जीव जन्तु भी भस्म हो जाते हैं। किन्तु आम जनमानस को इससे कोई सरोकार नहीं, क्योंकि जंगलों के लिए जंगलात विभाग की तैनाती या जिम्मेदारी है। कोई इनसे पूछे कि क्या जंगलात विभाग के अलावा आम जनमानस की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती।
प्राकृतिक सम्पदा को दोहण करते समय हम भूल जाते हैं कि ये जंगल हैं तभी हम जिन्दा हैं। जिस तरह से हम अपना जीवन संवारते हैं, अपने स्वास्थ्य की चिंता करते हैं। उसी प्रकार हमें अपने क्षेत्र के जंगलों की भी चिंता करनी चाहिए। जंगल जंगलात विभाग की नहीं अपितु हमारी सबकी जिम्मेदारी है। हमें ऐसी किसी भी घटना पर केवल और केवल तमाशबीन नहीं बनना चाहिए, बल्कि संबंधित विभाग के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग करना चाहिए। जंगल हमारी संपत्ति है, ये हमारी जीवन प्रणाली को सुगम बनाते हैं।
2020 का कोरोना कॉल सभी को याद रखना चाहिए, जहां महानगरों में आक्सीजन के लिए मारा-मारी हो रही थी, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों और पर्वतीय क्षेत्रों में कोरोना चाह कर भी महानगरों की अपेक्षा अपने पैर ढंग से नहीं पसार पाया था। शायद इसकी वजह यही थी कि हम एक स्वस्थ वातावरण में जी रहे थे, जहां प्रकृति हमारी रक्षा कर रही थी।
उत्तराखण्ड में 70 प्रतिशत वन क्षेत्र माना जाता है, जो कि शायद काफी पहले के आंकड़े हैं। आज की तारीख में उत्तराखण्ड का वन क्षेत्र कम से कम 30 प्रतिशत सिमट गया है। आंकड़े कुछ भी दिखाते रहें, किंतु जिस रफ्तार में वन कटान हुआ है, हम होटल संस्कृति, रिजोर्ट और पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर अपनी अमूल्य निधि वन संपदा को बड़ी तेजी से नष्ट कर रहे हैं। वो दिन दूर नहीं जब उत्तराखण्ड ही नहीं भारतवर्ष के पर्वतीय क्षेत्र जंगलों के लिए तरस जायेंगे। मौसम का बदलता स्वरूप सबके सामने हैं।
अब बात करते हैं, देहरादून के ग्रामीण क्षेत्र की ! जहां अति संरक्षित जाति सॉल के जंगल हैं । किंतु मैं पिछले 2 माह से देख रहा हूॅ कि सॉल के जंगल धूॅ-धूं कर जल रहे हैं। जंगल में ही नहीं आबादी के नजदीक भी। जबकि इस बार मार्च, अप्रैल में दमदार बरसात हुई, बसन्त भी देरी से आया। पतझड़ अब तक हो रहा है। पिछले वर्ष की अपेक्षा आग कम लगनी चाहिए थी किंतु पिछले वर्ष जंगल में आग की घटनाएं कम हुई, इस वर्ष जंगल में आग की घटनाएं रूकने का नाम नहीं ले रही।
अगर चीड़ के ज्रगलों में आग लगने की घटनाओं को मान लें तो वहां अभी भी शांति है। फिर हमारे सॉल के जंगल क्यों धधक रहें हैं। कहीं इसके पीछे भूमफियाओं की कोई साजिश तो नहीं है। वन विभाग को आग लगने के स्थान को ध्यान में रखते हुए एक-एक स्थान का बारीकी से निरिक्षण करना चाहिए ताकि दोषियों को सही जगह पहुंचाया जा सके।
जहां उत्तराखण्ड में पेड़ों की कटाई को लेकर ‘‘चिपको’’ आन्दोलन जगजाहिर हैं, आज वहीं के लोग जंगलों को नष्ट करने पर आमादा हैं, मात्र कुछ लालच के लिए, बड़ा ही गंभीर विषय है। जंगल हमारी जिम्मेदारी है, जंगलात कीी नहीं ये बात हमारी समझ में आनी ही चाहिए, तभी हम अपनी और अपनी आने वाली पीढ़ियों की जान बचा पायेंगे।